शस्य विज्ञान के इस टॉपिक के अंतर्गत हम सिंचाई एवं सिंचाई की विधियां ( Irrigation and Methods of Irrigation) के बारे में विस्तृत जानकारी के साथ ही सिंचाई एवं सिंचाई की विधियां के बारे में सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त करेंगे।
सिंचाई एवं सिंचाई की विधियां | Irrigation and Methods of Irrigation
सिंचाई (Irrigation) -
👉 सिंचाई - पौधों की वृद्धि के लिए मृदा में आवश्यक आद्रता प्रदान करने के उद्देश्य से कृत्रिम रूप से जल देने की प्रक्रिया को सिंचाई कहते हैं।
👉 पौधो में सिंचाई की आवश्यकता क्यों होती है-
1. पौधों की वृद्धि के लिए।
2 पाले से बचाव के लिए
3 सूखे से बचाव के लिए
4. बुवाई से पहले खेत तैयार करने के लिए
5. भू परिष्करण यंत्रों को सफलता से प्रयोग करने के लिए
6. मृदा में उपस्थित लवणों को उदासीन करने के लिए।
7. मृदा व वायुमण्डल में उचित नमी बनाये रखने के लिए
👉 पौधों को जल की आवश्यकता क्यों होती है-
1. प्रकाश संश्लेषण में आवश्यक है।
2 बीजों को अंकुरण के लिए
3 पोषक तत्वों के संवाहन के कार्य
4. पौधों को स्फूर्ति प्रदान करने के लिए
5. वर्षा की अनिश्चितता को समाप्त करने के लिए
6. लाभदायक जीवाणुओं को क्रियाशील करने के लिए जल आवश्यक है।
7. प्रोटोप्लाज्मा का मुख्य अवयव एवं कोशिका विभाजन के लिए अति आवश्यक है।
👉 जल मांग - जल की वह मात्रा है जो एक फसल की क्षेत्र परिस्थितियों में निश्चित अवधि तक फसल को सामान्य वृद्धि हेतु उगाने के लिए आवश्यक होती है। इसमें वाष्पिकरण, वाष्पोत्सर्जन तथा पौधे के शरीर के निर्माण के लिए आवश्यक जल के अलावा वह जल भी सम्मिलित होता है जो रिसने, बहने व जमीन में नीचे चले जाने से व्यर्थ चला जाता है।
👉 जल मांग (WR)= ET + I +S
जंहा-ET= वाष्पोत्सर्जन, E= वाष्पीकरण, I = सिंचाई S=अन्य कारक
👉 जल मांग (WR) = I + PR+ SM
(WR)= जल मांग, I= सिंचाई, PR= प्रभावी वर्षा, SM= संग्रहित नमी
👉 सिंचाई मांग (IR) - प्रभावी वर्षा एवं संग्रहित नमी के अलावा जो पानी चाहिए उसे सिंचाई मांग कहते है।
👉 सिंचाई मांग = जल मांग (प्रभावी वर्षा + संग्रहित नमी) IR= WR- (PR+SM)
👉 दो सिंचाइयों के बीच अन्तर ज्ञात किया जाता है = कुल मृदा जल अपक्षय (सेमी.में) / वाष्पन - वाष्पोत्सर्जन की दर (सेमी.प्रतिदिन)
👉 कम पानी चाहने वाली फसलें बाजरा, ज्वार, सरसों, मक्का, चना आदि होती है।
👉 अधिक पानी चाहने वाली फसलें गन्ना, धान, तम्बाकू, जौ, कपास, गेहूं आदि मानी जाती है
फसलों की जल मांग पर किसका प्रभाव पड़ता है -
1. कृषि क्रियाएँ एवं भूमि की तैयारी
2. मृदा की किस्म एवं भौतिक गुण
3. जलवायुवीय कारण
4. जल स्रोत की दूरी
5. कीट व बीमारियों का आक्रमण
6. पानी का गुणा
7.सिंचाई की विधि
👉 प्रमुख फसलें, उनकी जल मांग एवं क्रान्तिक अवस्थाएं।
फसलें - जल मांग (सेमी) - सिंचाई संख्या - प्रमुख क्रान्तिक अवस्थाएँ
1 गैहूँ - 45-65 - 5-6 - शीर्ष जड फूटान (21 दिन)
2 जौ - 25-30 - 3-4 - बुवाई से 30 दिन बाद,दाने भरते समय
3 सरसों - 20-30 - 1-2 - फूल आने से पहले,फलिया बनते समय
4 चना - 20-25 - 1-2 - फूल आने से पहले,फलिया बनते समय
5 अलसी - 25-30 - 2-3 - फूल आने से पहले,फलिया बनते समय
6 मक्का - 50-80 - 4-5 - नरमंझरी आते समय भूट्टे बनते समय
7 ज्वार - 45-65 - 2-3 - फूल आते समय
8 सोयाबीन - 45-70 - 2-3 - पुष्पन से पूर्व कलिया बनते समय
9 मूंगफली - 50-70 - 2-3 - सूईया बनने से मूंगफली बनने तक
10 गन्ना - 150-250 - 2-3 - कल्ले निकलते समय व बढ़वार के समय
11 तम्बाकू - 40-60 - 2-3 - पत्तियों की चुटाई करते समय
12 आलू - 50-70 - 2-3 - अंकुरण.के समय,कंद बनने के प्रारम्भ,
13 कपास - 70-130 - 4-5 - डोडे के समय, फूल व डोडे के समय
14 धान - 90-250 - 4-5 - फूल आने से पहले के कलिया बनते समय
15 बरसीम - 200-250 - बुवाई के तुरन्त बाद व इसके बाद हर कटाई के बाद सिंचाई करते हैं।
16 रिजका - 180–200 - बुवाई के तुरन्त बाद व इसके बाद हर कटाई के बाद सिंचाई करते हैं।
17 सूरजमुखी - 40-60 - 4 -8
18 मटर - 35-50 - 1-2 - प्रथम सिंचाई बुवाई के 45-50 दिन बाद व दूसरी 75 दिन बाद करते हैं।
👉 नोट-दलहनी फसलों में सिंचाई की क्रांतिक अवस्थाऐं शिखर जड़ों के निकलते समय व फुल
आते समय हैं।
सिंचाई के साधन -
👉 पौधो में सिंचाई की आवश्यकता क्यों होती है-
1. पौधों की वृद्धि के लिए।
2 पाले से बचाव के लिए
3 सूखे से बचाव के लिए
4. बुवाई से पहले खेत तैयार करने के लिए
5. भू परिष्करण यंत्रों को सफलता से प्रयोग करने के लिए
6. मृदा में उपस्थित लवणों को उदासीन करने के लिए।
7. मृदा व वायुमण्डल में उचित नमी बनाये रखने के लिए
👉 पौधों को जल की आवश्यकता क्यों होती है-
1. प्रकाश संश्लेषण में आवश्यक है।
2 बीजों को अंकुरण के लिए
3 पोषक तत्वों के संवाहन के कार्य
4. पौधों को स्फूर्ति प्रदान करने के लिए
5. वर्षा की अनिश्चितता को समाप्त करने के लिए
6. लाभदायक जीवाणुओं को क्रियाशील करने के लिए जल आवश्यक है।
7. प्रोटोप्लाज्मा का मुख्य अवयव एवं कोशिका विभाजन के लिए अति आवश्यक है।
👉 जल मांग - जल की वह मात्रा है जो एक फसल की क्षेत्र परिस्थितियों में निश्चित अवधि तक फसल को सामान्य वृद्धि हेतु उगाने के लिए आवश्यक होती है। इसमें वाष्पिकरण, वाष्पोत्सर्जन तथा पौधे के शरीर के निर्माण के लिए आवश्यक जल के अलावा वह जल भी सम्मिलित होता है जो रिसने, बहने व जमीन में नीचे चले जाने से व्यर्थ चला जाता है।
👉 जल मांग (WR)= ET + I +S
जंहा-ET= वाष्पोत्सर्जन, E= वाष्पीकरण, I = सिंचाई S=अन्य कारक
👉 जल मांग (WR) = I + PR+ SM
(WR)= जल मांग, I= सिंचाई, PR= प्रभावी वर्षा, SM= संग्रहित नमी
👉 सिंचाई मांग (IR) - प्रभावी वर्षा एवं संग्रहित नमी के अलावा जो पानी चाहिए उसे सिंचाई मांग कहते है।
👉 सिंचाई मांग = जल मांग (प्रभावी वर्षा + संग्रहित नमी) IR= WR- (PR+SM)
👉 दो सिंचाइयों के बीच अन्तर ज्ञात किया जाता है = कुल मृदा जल अपक्षय (सेमी.में) / वाष्पन - वाष्पोत्सर्जन की दर (सेमी.प्रतिदिन)
👉 कम पानी चाहने वाली फसलें बाजरा, ज्वार, सरसों, मक्का, चना आदि होती है।
👉 अधिक पानी चाहने वाली फसलें गन्ना, धान, तम्बाकू, जौ, कपास, गेहूं आदि मानी जाती है
फसलों की जल मांग पर किसका प्रभाव पड़ता है -
1. कृषि क्रियाएँ एवं भूमि की तैयारी
2. मृदा की किस्म एवं भौतिक गुण
3. जलवायुवीय कारण
4. जल स्रोत की दूरी
5. कीट व बीमारियों का आक्रमण
6. पानी का गुणा
7.सिंचाई की विधि
👉 प्रमुख फसलें, उनकी जल मांग एवं क्रान्तिक अवस्थाएं।
फसलें - जल मांग (सेमी) - सिंचाई संख्या - प्रमुख क्रान्तिक अवस्थाएँ
1 गैहूँ - 45-65 - 5-6 - शीर्ष जड फूटान (21 दिन)
2 जौ - 25-30 - 3-4 - बुवाई से 30 दिन बाद,दाने भरते समय
3 सरसों - 20-30 - 1-2 - फूल आने से पहले,फलिया बनते समय
4 चना - 20-25 - 1-2 - फूल आने से पहले,फलिया बनते समय
5 अलसी - 25-30 - 2-3 - फूल आने से पहले,फलिया बनते समय
6 मक्का - 50-80 - 4-5 - नरमंझरी आते समय भूट्टे बनते समय
7 ज्वार - 45-65 - 2-3 - फूल आते समय
8 सोयाबीन - 45-70 - 2-3 - पुष्पन से पूर्व कलिया बनते समय
9 मूंगफली - 50-70 - 2-3 - सूईया बनने से मूंगफली बनने तक
10 गन्ना - 150-250 - 2-3 - कल्ले निकलते समय व बढ़वार के समय
11 तम्बाकू - 40-60 - 2-3 - पत्तियों की चुटाई करते समय
12 आलू - 50-70 - 2-3 - अंकुरण.के समय,कंद बनने के प्रारम्भ,
13 कपास - 70-130 - 4-5 - डोडे के समय, फूल व डोडे के समय
14 धान - 90-250 - 4-5 - फूल आने से पहले के कलिया बनते समय
15 बरसीम - 200-250 - बुवाई के तुरन्त बाद व इसके बाद हर कटाई के बाद सिंचाई करते हैं।
16 रिजका - 180–200 - बुवाई के तुरन्त बाद व इसके बाद हर कटाई के बाद सिंचाई करते हैं।
17 सूरजमुखी - 40-60 - 4 -8
18 मटर - 35-50 - 1-2 - प्रथम सिंचाई बुवाई के 45-50 दिन बाद व दूसरी 75 दिन बाद करते हैं।
👉 नोट-दलहनी फसलों में सिंचाई की क्रांतिक अवस्थाऐं शिखर जड़ों के निकलते समय व फुल
आते समय हैं।
सिंचाई के साधन -
👉 सिंचाई के साधनों को चार भागों में बांटा गया है।
1. हस्त चलित सिंचाई के प्रमुख साधन ढेकली एवं बेड़ी है।
2. पशुचालित सिंचाई के प्रमुख साधन रहट एवं चरस है।
3. पवन चलित सिंचाई के प्रमुख साधन पवन चक्की है।
4. शक्ति चलित सिंचाई के प्रमुख साधन विद्युत चलित पम्प सैट एवं डीजल चलित पम्प सैट हैं।
👉 हस्त चलित ढेकली का प्रयोग उथले कुओं, धाराओं एवं तालाबों में जल निकालने में किया जाता है।
👉 ढेकली को पिकोटा कहा जाता है।
👉 ढेकली विधि से 1-3 मीटर गहराई तक जल निकाला जा सकता है।
👉 ढेकली विधि में एक व्यक्ति के द्वारा 2200-3000 लीटर पानी प्रति घंटा उठाया जा सकता है।
👉 हस्त चलित सिंचाई के साधन बेडी के दूसरे नाम ढोलन टोकरी के नाम से पुकारा जाता है।
👉 बेडी दोलन के सिद्धान्त पर कार्य करती है।
👉 बेडी के द्वारा 1-1.5 मीटर गहराई तक पानी को उठाया जा सकता है।
👉 बेडी के द्वारा प्रति घंटा 3600-5000 लीटर पानी निकाला जा सकता है।
👉 पशु चलित सिंचाई के साधन रहट द्वारा 10-12 मीटर गहराई से पानी उठाया जा सकता है।1. हस्त चलित सिंचाई के प्रमुख साधन ढेकली एवं बेड़ी है।
2. पशुचालित सिंचाई के प्रमुख साधन रहट एवं चरस है।
3. पवन चलित सिंचाई के प्रमुख साधन पवन चक्की है।
4. शक्ति चलित सिंचाई के प्रमुख साधन विद्युत चलित पम्प सैट एवं डीजल चलित पम्प सैट हैं।
👉 हस्त चलित ढेकली का प्रयोग उथले कुओं, धाराओं एवं तालाबों में जल निकालने में किया जाता है।
👉 ढेकली को पिकोटा कहा जाता है।
👉 ढेकली विधि से 1-3 मीटर गहराई तक जल निकाला जा सकता है।
👉 ढेकली विधि में एक व्यक्ति के द्वारा 2200-3000 लीटर पानी प्रति घंटा उठाया जा सकता है।
👉 हस्त चलित सिंचाई के साधन बेडी के दूसरे नाम ढोलन टोकरी के नाम से पुकारा जाता है।
👉 बेडी दोलन के सिद्धान्त पर कार्य करती है।
👉 बेडी के द्वारा 1-1.5 मीटर गहराई तक पानी को उठाया जा सकता है।
👉 बेडी के द्वारा प्रति घंटा 3600-5000 लीटर पानी निकाला जा सकता है।
👉 रहट विधि में एक जोडी बैल शक्ति के द्वारा 9000-10000 लीटर पानी प्रति घंटा उठाया जा सकता है।
👉 चरस को दूसरे नाम मोट/पूर के नाम से पुकारा जाता है।
👉 चरस सिंचाई का प्राचीन साधन माना जाता है।
👉 चरस के द्वारा 30 मीटर तक गहराई के कुओं का पानी उठाया जा सकता है।
👉 चरस (चमडे का थैला) की 170-220 लीटर पानी की क्षमता होती है।
👉 चरस को खींचते समय बैल जिस जगह का उपयोग करते हैं उसे गुणी कहा जाता है।
👉 गुणी का ढाल 15° होना चाहिए।
👉 चरस विधि से 8000-10000 लीटर पानी प्रति घंटा उठाया जा सकता है।
👉 पवन चक्की वायु के वेग से चलती है।
👉 पवन चक्की को चलाने के लिए न्यूनतम पवन वेग 25.6 किमी/घंटा या 16 मील/घं. होना चाहिए।
👉 पवन चक्की के द्वारा अश्व शक्ति (HP) = 0.0000025 (D^2 W^2) D = पहिये का व्यास W= पवन वेग ज्ञात की जाती है।
👉 शस्य विज्ञान सिंचाई के आधुनिक साधन बरमा है।
👉 सिंचाई का साधन बरमा का उपयोग नहरों, नालों, तालाबों, सीवरों में किया जाता है।
👉 बरमा का उपयोग नहरों से खेत ऊँचे होते हैं वहां किया जाता है।
👉 सबसे अधिक मशहूर बरमें ऐलनाबाद (सिरसा) हरियाणा के हैं।
👉 सिंचाई का सबसे अधिक दक्ष साधन पम्पसैट है।
👉 पम्प सैटों के रेसिप्रोकेटिंग, रोटरी टरबाइन, प्रोपेलर विकेन्द्रीय आदि होते हैं।
👉 पम्प की बोडी को केसिंग कहते हैं।
👉 सबसे अधिक प्रचलित पम्पसैट विकेन्द्रीय सैट हैं।
👉 पम्पसैट की बॉडी के अन्दर लगे पखें को इम्पेलर कहते हैं।
भारत में सिंचाई के साधन -
नहरें, तालाब, कुएं, झरने, पाताल तोड कुएं, नलकूप हैं।
सिंचित क्षेत्र - राजस्थान - भारत
1. कुल सिंचित क्षेत्र - 8.8 मिलियन हैक्टेयर - 76 मिलीयन हैक्ट.
2. शुद्ध सिंचित क्षेत्र - 6.44 मिलीयन हैक्टेयर - 57 मिलियन हैक्ट.
3. नहरों द्वारा सिंचित क्षेत्र - 26.19 प्रतिशत - 40 प्रतिशत
4. तालाबों द्वारा सिंचित क्षेत्र - 1.5 प्रतिशत - 8.0 प्रतिशत
5. कुओं द्वारा (ओपनवेल) - 28.33 प्रतिशत - 30 प्रतिशत
6. नलकुपों द्वारा (ट्यूबवैल) - 44.37 प्रतिशत - 22 प्रतिशत
7. कुएं व नलकूपों दोनों द्वारा - 72.70 प्रतिशत - 54 प्रतिशत
8. अन्य द्वारा - 1.2 प्रतिशत - 1.25 प्रतिशत
9. सूक्ष्म सिंचाई क्षेत्र - (-) - 3.54 लाख
👉नोट- राजस्थान का कुल सिंचित क्षेत्र 139795 लाख हैक्टयर है।
नहरों के प्रकार -
1. अनित्यवाही - इन्हें बरसाती नहरें कहते हैं।
जैसे - कृष्णा, कावेरी
2. नित्यवाही - इन्हें बारहमासी नहरें भी कहते हैं। जैसे-इन्दिरा गांधीनहर।
👉 भारत में सबसे अधिक नहरों से सिंचाई वाले राज्य हरियाणा, पंजाब व उत्तर प्रदेश हैं।
👉 राजस्थान में नहरों से सिंचाई गगानगर, कोटा, हनुमानगढ, बीकानेर भीलवाडा,सवाई माधोपुर, अलवर, जालौर जिलों में होती हैं।
👉 राजस्थान में सबसे प्रमुख नहर इन्दिरा गांधी नहर है।
👉 राजस्थान में नहरों द्वारा सर्वाधिक सिंचाई गंगानगर व हनुमानगढ़ जिले में होती है।
👉 इंदिरा गांधी का दूसरा नाम राजस्थान नहर (राजस्थान की जीवन रेखा) है।
👉 राजस्थान नहर को राजस्थान की मरू गंगा भी कहा जाता है।
👉 पंजाब प्रदेश में सतलज एवं व्यास नदी के संगम पर बने हरिके बांध से इंदिरा गांधी नहर निकाली गई है।
👉 गंगनहर - सन् 1927 में महाराजा गंगा सिंह ने बनवाई। इस नहर से बीकानेर एवं गंगानगर जिलों में सिंचाई होती है।
👉 राजस्थान नहर की लम्बाई 649 किलोमीटर तथा चौडाई 38 मीटर व 6 से 7 मीटर गहरी होती है।
👉 मुख्य नहरों की बहाव क्षमता 350-500 घनमीटर/सै. होती है।
👉 शाखा नहरों की बहाव क्षमता 15 से 80 घनमीटर/सै. होती है।
👉 भारत में 10 प्रतिशत कृषि क्षेत्र में तालाबों से सिंचाई होती है।
👉 तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश,कर्नाटक, उडीसा एवं उत्तर प्रदेश प्रदेशों में तालाबों से सिंचाई होती है।
👉 राजस्थान में तालाबों द्वारा सर्वाधिक सिंचाई बारां एवं भीलवाडा जिले में होती है।
👉 उदयपुर, पाली, राजसमन्द, टोंक व कोटा जिलों में तालाबों द्वारा सिंचाई 80% होती है।
👉 भारत में भूमिगत जल का प्रमुख स्त्रोत कुएँ है।
👉 राजस्थान में सर्वाधिक कुओं द्वारा सिंचाई झुन्झुनु जिले में होती है।
राजस्थान के बांध-
👉 चम्बल नदी पर -
1. गांधी सागर बांध - भानपुरा, नीमच (मध्यप्रदेश)
2. जवाहर सागर बांध - कोटा
3. राणा प्रताप सागर - रावतभाटा (चित्तौडगढ़)
👉 माही बजाज सागर बांध माही नदी, बांसवाड़ा क्षेत्र में स्थित है।
👉 बनास नदी में महत्वपूर्ण बांध बना हुआ है जिसका नाम बीसलपुर बांध, टोंक में स्थित है।
👉 भाखड़ा बांध सतलज नदी, होशियारपुर में बना हुआ है।
👉 मारवाड का अमृतसरोवर कहा जाने वाला जवाई बांध जवाई नदी, परीनपुरा, पाली में स्थित है।
👉 बनास नदी में महत्वपूर्ण बांध बना हुआ है जिसका नाम बीसलपुर बांध, टोंक में स्थित है।
👉 भाखड़ा बांध सतलज नदी, होशियारपुर में बना हुआ है।
👉 मारवाड का अमृतसरोवर कहा जाने वाला जवाई बांध जवाई नदी, परीनपुरा, पाली में स्थित है।
👉 भीलवाडा जिले में स्थित महत्वपूर्ण बांध-
1. मेजा बांध - कोठारी नदी -माण्डल, भीलवाडा
2. खारी बांध - खारी नदी - भीलवाडा
1. मेजा बांध - कोठारी नदी -माण्डल, भीलवाडा
2. खारी बांध - खारी नदी - भीलवाडा
👉 उदयपुर जिले में महत्वपूर्ण बांध -
1. जाखम बांध - जाखम नदी - छोटी सादड़ी, उदयपुर
👉 पांचना बांध - भद्रीवती नदी - करौली में स्थित है।
👉 रूपारेल बांध - रूपारेला नदी - बेगू, चित्तौडगढ़ में स्थित है।
👉 दौसा जिले में मोरेल बांध, मारेल नदी महत्वपूर्ण बांध है।
👉 छापी नदी पर छापी बांध, झालावाड में है।
👉 विलास योजना बांध विलास नदी, बारां में स्थित है।
झीलें-
1. जाखम बांध - जाखम नदी - छोटी सादड़ी, उदयपुर
👉 पांचना बांध - भद्रीवती नदी - करौली में स्थित है।
👉 रूपारेल बांध - रूपारेला नदी - बेगू, चित्तौडगढ़ में स्थित है।
👉 दौसा जिले में मोरेल बांध, मारेल नदी महत्वपूर्ण बांध है।
👉 छापी नदी पर छापी बांध, झालावाड में है।
👉 विलास योजना बांध विलास नदी, बारां में स्थित है।
झीलें-
👉 राजस्थान में खारे पानी की झीलें - सांभर झील (जयपुर), डीडवाना झील (नागौर), लूणकरणसर झील (बीकानेर), फलौदी झील (जोधपुर), पंचभद्रा (बाडमेर)।
👉 राजस्थान में मीठे पानी की झीले-जयसमन्द झील (उदयपुर), राजसमन्द झील (राजसमन्द), फतेहसागर, पिछोला, स्वरूप सागर (सभी उदयपुर में), आनासागर, फाईसागर,पुष्कर(सभी अजमेर में), राणा प्रताप सागर (चित्तौड),जवाहर सागर (कोटा), गांधी सागर (मध्यप्रदेश), सीलीसेड झील (अलवर) । सिंचाई की विधियां
👉 धान, जूट, बरसीम में सिंचाई की प्रवाह विधि उपयोगी होती है।
👉 इस विधि में 50 से 75 प्रतिशत जल व्यर्थ हो जाता है।
सिंचाई की विधियां
- पानी की मात्रा, फसल की प्रकृति एवं सिंचाई की विधि पर निर्भर होती है।
👉 सिंचाई की विधि को दो भागों में बांटा गया है। (a) पृष्ठीय अथवा धरातलीय सिंचाई विधि -
1. सिंचाई की प्रवाह विधि/जल प्लावन विधि (Flod method) - वहां अपनाई जाती हैं जिन क्षेत्रों में पानी बहुत मात्रा में पाया जाता है।👉 धान, जूट, बरसीम में सिंचाई की प्रवाह विधि उपयोगी होती है।
👉 इस विधि में 50 से 75 प्रतिशत जल व्यर्थ हो जाता है।
2. धरातलीय सिंचाई विधि या सतही सिंचाई विधि (Check Basin) - भारत में सबसे ज्यादा प्रचलित विधि क्यारी विधि होती है।
👉 क्यारी विधि गेहूं जौ, सरसों, कपास, चना, पालक, धनियां, मेथी, टमाटर की फसलों के लिए उपयोगी है। इस विधि में क्यारी की लम्बाई 6 से 12 मीटर तथा चिकनी मृदा में 15 से 20 मीटर रखते है।
👉 इस विधि की सबसे बडी कमी यह है कि खेत का एक बड़ा भाग मेढ बनाने में व्यर्थ हो जाता है तथा श्रमिकों की आवश्यकता अधिक होती है।
👉 इस विधि में क्यारियों में बलुई मृदा में छोटी तथा मटियार भूमि में बड़ बनाई जाती है।
👉 एक एकड नहरी क्षेत्रों में 8-10 क्यारियां बनाई जाती है।
👉 क्यारी विधि गेहूं जौ, सरसों, कपास, चना, पालक, धनियां, मेथी, टमाटर की फसलों के लिए उपयोगी है। इस विधि में क्यारी की लम्बाई 6 से 12 मीटर तथा चिकनी मृदा में 15 से 20 मीटर रखते है।
👉 इस विधि की सबसे बडी कमी यह है कि खेत का एक बड़ा भाग मेढ बनाने में व्यर्थ हो जाता है तथा श्रमिकों की आवश्यकता अधिक होती है।
👉 इस विधि में क्यारियों में बलुई मृदा में छोटी तथा मटियार भूमि में बड़ बनाई जाती है।
👉 एक एकड नहरी क्षेत्रों में 8-10 क्यारियां बनाई जाती है।
3. सिंचाई की नाली विधि (Deep Furrow/Trench)- फसलें मेड़ों पर बोई जाती है तथा सिंचाई कुंडों में की जाती है उसे सिंचाई की कुण्ड विधि कहते है।
👉 जिन फसलों में बुवाई मेडों पर की जाती है (आलू, शकरकन्द, अरबी, मूली, शलजम) एवं जिन फसलों को नालियों में बोया जाता है (केला,गन्ना, कपास) अपनाई जाती है।
👉 जिन क्षेत्रों में सतही जल निकास की आवश्यकता होती है वहां कुण्ड विधि अधिक प्रभावी है। कुण्डों की लम्बाई कम ढलान वाली मृदाओं में 30 मीटर एवं अधिक
👉 ढलान वाली भारी मृदाओं में 300 मीटर तक रखी जाती है।
👉 यह विधि 0.2 से 0.5 प्रतिशत ढ़लान एवं 1 से 2 लीटर प्रति सैकण्ड धारा प्रवाहित के लिए आदर्श है।
👉 45-60 सेमी चौड़ाई एवं 30-45 सेमी गहरी सामान्यतः गन्ना एवं कपास में नालियां होती है।
👉 90 सेमी चौड़ी एवं 90 सेमी गहरी नालियां केले की फसल के लिये बनाई जाती है।
4. सिंचाई की थाला विधि-(Basin Method) -
👉 सिंचाई की थाला विधि का उपयोग फल, वृक्षों उद्यानों में अपनाई जाती है।
👉 सिंचाई की थाला विधि को द्रोण विधि के नाम से जाना जाता है।
👉 इस विधि का मुख्य दोष यह है कि एक पौधे का रोग दूसरे पौधे में लगने का भय रहता है।
5. सिंचाई की वलय विधि -(Ring Method) -
👉 सिंचाई की वलय विधि थाला विधि की तरह लेकिन पेड का तना पानी के सीधे सम्पर्क में नहीं रहता है और इस विधि में थाला पेड़ के चारों तरफ 30-40 सेमी. घेरे में व 15 से 20 सेमी. ऊंचे थाले बनाये जाते है ताकि पानी पेड़ों के तनों को नहीं छू पायेगा।
👉 जिन फसलों में बुवाई मेडों पर की जाती है (आलू, शकरकन्द, अरबी, मूली, शलजम) एवं जिन फसलों को नालियों में बोया जाता है (केला,गन्ना, कपास) अपनाई जाती है।
👉 जिन क्षेत्रों में सतही जल निकास की आवश्यकता होती है वहां कुण्ड विधि अधिक प्रभावी है। कुण्डों की लम्बाई कम ढलान वाली मृदाओं में 30 मीटर एवं अधिक
👉 ढलान वाली भारी मृदाओं में 300 मीटर तक रखी जाती है।
👉 यह विधि 0.2 से 0.5 प्रतिशत ढ़लान एवं 1 से 2 लीटर प्रति सैकण्ड धारा प्रवाहित के लिए आदर्श है।
👉 45-60 सेमी चौड़ाई एवं 30-45 सेमी गहरी सामान्यतः गन्ना एवं कपास में नालियां होती है।
👉 90 सेमी चौड़ी एवं 90 सेमी गहरी नालियां केले की फसल के लिये बनाई जाती है।
4. सिंचाई की थाला विधि-(Basin Method) -
👉 सिंचाई की थाला विधि का उपयोग फल, वृक्षों उद्यानों में अपनाई जाती है।
👉 सिंचाई की थाला विधि को द्रोण विधि के नाम से जाना जाता है।
👉 इस विधि का मुख्य दोष यह है कि एक पौधे का रोग दूसरे पौधे में लगने का भय रहता है।
5. सिंचाई की वलय विधि -(Ring Method) -
👉 सिंचाई की वलय विधि थाला विधि की तरह लेकिन पेड का तना पानी के सीधे सम्पर्क में नहीं रहता है और इस विधि में थाला पेड़ के चारों तरफ 30-40 सेमी. घेरे में व 15 से 20 सेमी. ऊंचे थाले बनाये जाते है ताकि पानी पेड़ों के तनों को नहीं छू पायेगा।
(b) अद्योपृष्ठीय या अवभूमि सिंचाई या अन्तः सिंचाई विधि -
👉 अवभूमि सिंचाई या अन्तः सतह सिंचाई विधि - इसमें पानी को जड़ों के नीचे प्राप्त होता है।1. फव्वारा सिंचाई विधि (Sprinkler Method)
👉 फव्वारा या छिड़कवा सिंचाई विधि भारत में इजराइल देश से वर्ष 1964 में आयी थी।
👉 फव्वारा या छिडकवां सिंचाई विधि उखड, खाबड, रेतीली मृदा व टीलेदार, असमतलीय क्षेत्रों के लिए सर्वोत्तम होती है।
👉 इसमें पानी का डिस्चार्ज 1000 लीटर प्रति घण्टा होता है।
👉 फव्वारा सिंचाई विधि की सिंचाई दक्षता 75 से 82 प्रतिशत होती है।
👉 फव्वारा सिंचाई विधि से 40 प्रतिशत पानी की बचत होती है।
👉 नोजल सेट का सबसे महत्वपूर्ण भाग है जिसे सेट का हृदय कहा जाता है।
👉 इस विधि से 1 एकड़ (2.5 बीघा) की सिंचाई कम पानी के साथ 3 से 4 घण्टे में की जा सकती है।
👉 भारत में सर्वाधिक फव्वारा सिंचाई विधि राजस्थान में अपनाई जाती है।
👉 राजस्थान में सर्वाधिक स्प्रिंकलर सैट वाला जिला झुंझुनू है।
👉 फव्वारा सिंचाई विधि में स्प्रिंकलर की दूरी 12 मीटर रखते हैं।
👉 फव्वारा संयत्र में दाब 2.5 से 4.5 kg/cm होता है।
👉 रेनगन सिंचाई पद्धति (माइक्रोस्प्रींकलर) फवारा सिंचाई विधि की नयी तकनीक है जो गन्ना व लॉन के लिए उपयुक्त होती है। इस विधि में संयंत्र दाब 3.5 से 5 kg/cm^2 होता है।
2. बून्ददार/टपकेदार/वृष्टि सिंचाई विधि (Drip Method) -
👉 इस विधि का विकास डॉ. सिमचाबलास ने 1760 ई. में किया।
👉 यह पद्धति इजरायल देश से लायी गयी है।
👉 भारत यह पद्धति महाराष्ट्र में अपनायी जाती है।
👉 ड्रिप सिंचाई में दाब 2.5 किग्रा/सेमी^2 होता है।
👉 इसी विधि को ट्रिकल या माइक्रो इरीगेशन भी कहते हैं।
👉 इस विधि में 50-70% प्रतिशत पानी की बचत होती है।
👉 इस विधि की सिंचाई क्षमता 90 से 95 प्रतिशत होती है।
👉 इस विधि में ईमीटर द्वारा (उत्सर्जक) ड्रिप सिंचाई में पानी प्राप्त होता है तथा ईमीटर से पानी 2 से 2.5 लीटर ड्रिपर प्रतिघंटा डिस्चार्ज रेट है।
👉 यह पानी के अभाव एवं लवणता वाले क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। इस विधि का प्रयोग सब्जियों, गोबी टमाटर तथा फलों में अंगूर, पपीता, नींबू, केला में किया जाता है।
3. टाइफून - यह विधि बूंद-बूंद सिंचाई विधि का रूपान्तिरित रूप है तथा यह विधि महाराष्ट्र गन्ने की फसल में प्रचलित है।
👉 इरीकल्चर- वह कृषि जो सिंचाई करके की जाती है उसे इरीकल्चर कहते है।
👉 भूमिगत जल का निकास नालियां बनाकर किया जाता है।
👉 पत्थर के टुकड़ों, बांस के टुकड़ों एवं पत्तियों का प्रयोग करके रॉबिन नालियां बनाई जाती है।
👉 फल वाले पौधों में सर्वाधिक उपयुक्त सिंचाई ड्रिप सिंचाई विधि होती है।
👉 राजस्थान के कोटा जिले में जल द्वारा सर्वाधिक भू क्षरण होता है।
👉 राजस्थान में सर्वाधिक भूक्षरण वायु द्वारा होता है।
👉 शीर्ष जड़ फुटान के समय गेहूं की फसल में सिंचाई करना चाहिए।
👉 म्लानि बिन्दु पर पौधों में मृदा से बिलकुल पानी नहीं मिलता है।
👉 मृदा की क्षेत्र क्षमता पर पौधों को 100 प्रतिशत जल उपलब्ध होता है।
👉 मृदा का पृष्ठीय जल निकास रेण्डम नालियों विधि से होता है।
👉 मृदा से पौधों को पानी 1/3-15 atm के दबाव में मिलता है।
👉 पौधे मुरझाने की वह अवस्था जो पुनः सिंचाई करने पर ठीक हो जाती है उसे अस्थायी म्लानि प्रतिशत कहलाती है।
👉 इन्टरनेशनल इरिगेशन मैनेजमेंट इन्स्टीट्यूट श्रीलंका में स्थित है।
👉 मृदा में उपलब्ध जल की ऊपरी सीमा क्षेत्र क्षमता कहलाती है।
👉 साईको मीटर यंत्र के द्वारा सापेक्ष आर्द्रता को मापा जाता है।
👉 पार्सल फ्लूम यंत्र के द्वारा सिंचाई जल बहाव को मापा जाता है।
👉 टेन्सियोमीटर यंत्र द्वारा मृदा की नमी ज्ञात की जाती है।
👉 भूमि में अधिक सिंचाई करने पर अम्लता बढ़ जाती है।
👉 गेहूं की फसल में प्रथम सिंचाई 21 दिन पर की जाती है।
👉 उत्तरी राजस्थान में गर्मियों में प्रतिदिन वाष्पीकरण की दर 12-14 मिमी. होती है।
👉 राजस्थान में शुष्क खेती 65 प्रतिशत भाग पर की जाती है।
👉 भारत में शुष्क (असिंचित) क्षेत्रफल 60 प्रतिशत है।
👉 बलुई मृदा में सिंचाई की सर्वाधिक आवश्यकता होती है।
👉 नहरी क्षेत्रों में जल निकास के लिए सर्वोत्तम कट आउट नालियां मानी गयी है।
👉 पहाडी क्षेत्रों में झरनों से सिंचाई की जाती है।
👉 पौधों की उपापचय क्रिया में कुल फसल की जल मांग 1 प्रतिशत से कम होती है।
👉 मृदा में जल संग्रति करने की क्षमता एवं पानी की उपलब्धता भौतिक गुणों पर निर्भर होती है।
👉 उर्वरक देने पर फसल का वाष्पोत्सर्जन अनुपात कम हो जाता है।
👉 प्रक्षेत्र विधि फसल की जल मांग ज्ञात करने की विशुद्ध एवं वैज्ञानिक विधि मानी गयी है।
👉 फसल की प्रकृति जल मांग को सर्वाधिक प्रभावित करती है।
👉 कम अन्तराल पर सिंचाई उथली जड़ों वाली फसलों में करनी पड़ती है।
👉 एक आदर्श सिंचाई में सिंचाई कब एवं कितनी की जाये। बातों का ध्यान रखा जाता है।
👉 भारत में पंजाब का (75 प्रतिशत) सिंचित क्षेत्रफल है।
👉 भारत के सिंचित क्षेत्रफल का सबसे अधिक क्षेत्रफल उत्तर प्रदेश राज्य में है।
👉 भारत की विभिन्न मृदाओं में उपलब्ध जल की मात्रा (सूखी मिट्टी के जल का प्रतिशत) निम्न है-
1. रेत (Sand)- 3%
2. रेतीली दुमट(Sandy loam)- 7%
3. दुमट (Loam)- 9%
4. सिल्ट दुमट (Silt loam)- 9%
5. मृतिका दुमट (Clay loam)- 9%
6. मृतिका (Clay) - 16%
👉 सामान्यतः से कम सिंचाई के पानी में कुल घुलनशील लवण की मात्रा 1000 PPM होनी चाहिए।
👉 पानी में बोरेट, क्लोराइड, सोडियम, बाइ कार्बोनेट लवणों को हानिकारक माना जाता है।
👉 2000 ppm लवणों की मात्रा पानी में होने पर सिंचाई के लिए अनुपयुक्त माना गया है।
👉 सिंचाई के पानी में यदि सोडियम व बोरॉन की मात्रा ज्यादा हो तो
1. रेतीली भूमि में सिंचाई की जा सकती है।
2. भारी चिकनी मिट्टी में सिंचाई बिलकुल नहीं की जा सकती है। अंगूर के लिए हानिप्रद है।
👉 यदि सिंचाई पानी में 1.1 टन प्रति एकड फुट लवण है तो मध्यम से भारी भूमि के लिए उपयुक्त है।
👉 लवणों की मात्रा सिंचाई पानी में 8.4 टन प्रति एकड फुट है तो जिस भूमि में| जिप्सम की मात्रा ज्यादा हो (रिजका व कपास के लिए उपयुक्त) माना गया है।
👉 सिंचाई पानी में सोडियम का प्रतिशत अधिक हो तो रेतीली जमीन की पारगम्यता कम कर देता है।
👉 सिंचाई के खारे पानी में जिप्सम व गंधक का तेजाब मिलना ठीक रहता है।
👉 कार्बनिक खाद प्रचुर मात्रा में खेत में देने से घुलनशील साल्ट का रिसना बढ़ जाता है।
👉 क्षेत्र क्षमता-सिंचाई के 38-48 घंटे बाद जो जल मात्रा पृथ्वी की गुरूत्वाकर्षण के विरूद्ध रोक ली जाती है वह क्षेत्र क्षमता कहलाती है।
👉 1/3 atm वायु मण्डलीय दाब क्षेत्र क्षमता पर मृदा नमी तनाव होता है।
👉 क्षेत्र क्षमता पर मृदा में नमी 100 प्रतिशत होता है।
👉 फव्वारा या छिड़कवा सिंचाई विधि भारत में इजराइल देश से वर्ष 1964 में आयी थी।
👉 फव्वारा या छिडकवां सिंचाई विधि उखड, खाबड, रेतीली मृदा व टीलेदार, असमतलीय क्षेत्रों के लिए सर्वोत्तम होती है।
👉 इसमें पानी का डिस्चार्ज 1000 लीटर प्रति घण्टा होता है।
👉 फव्वारा सिंचाई विधि की सिंचाई दक्षता 75 से 82 प्रतिशत होती है।
👉 फव्वारा सिंचाई विधि से 40 प्रतिशत पानी की बचत होती है।
👉 नोजल सेट का सबसे महत्वपूर्ण भाग है जिसे सेट का हृदय कहा जाता है।
👉 इस विधि से 1 एकड़ (2.5 बीघा) की सिंचाई कम पानी के साथ 3 से 4 घण्टे में की जा सकती है।
👉 भारत में सर्वाधिक फव्वारा सिंचाई विधि राजस्थान में अपनाई जाती है।
👉 राजस्थान में सर्वाधिक स्प्रिंकलर सैट वाला जिला झुंझुनू है।
👉 फव्वारा सिंचाई विधि में स्प्रिंकलर की दूरी 12 मीटर रखते हैं।
👉 फव्वारा संयत्र में दाब 2.5 से 4.5 kg/cm होता है।
👉 रेनगन सिंचाई पद्धति (माइक्रोस्प्रींकलर) फवारा सिंचाई विधि की नयी तकनीक है जो गन्ना व लॉन के लिए उपयुक्त होती है। इस विधि में संयंत्र दाब 3.5 से 5 kg/cm^2 होता है।
2. बून्ददार/टपकेदार/वृष्टि सिंचाई विधि (Drip Method) -
👉 इस विधि का विकास डॉ. सिमचाबलास ने 1760 ई. में किया।
👉 यह पद्धति इजरायल देश से लायी गयी है।
👉 भारत यह पद्धति महाराष्ट्र में अपनायी जाती है।
👉 ड्रिप सिंचाई में दाब 2.5 किग्रा/सेमी^2 होता है।
👉 इसी विधि को ट्रिकल या माइक्रो इरीगेशन भी कहते हैं।
👉 इस विधि में 50-70% प्रतिशत पानी की बचत होती है।
👉 इस विधि की सिंचाई क्षमता 90 से 95 प्रतिशत होती है।
👉 इस विधि में ईमीटर द्वारा (उत्सर्जक) ड्रिप सिंचाई में पानी प्राप्त होता है तथा ईमीटर से पानी 2 से 2.5 लीटर ड्रिपर प्रतिघंटा डिस्चार्ज रेट है।
👉 यह पानी के अभाव एवं लवणता वाले क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। इस विधि का प्रयोग सब्जियों, गोबी टमाटर तथा फलों में अंगूर, पपीता, नींबू, केला में किया जाता है।
3. टाइफून - यह विधि बूंद-बूंद सिंचाई विधि का रूपान्तिरित रूप है तथा यह विधि महाराष्ट्र गन्ने की फसल में प्रचलित है।
👉 इरीकल्चर- वह कृषि जो सिंचाई करके की जाती है उसे इरीकल्चर कहते है।
👉 भूमिगत जल का निकास नालियां बनाकर किया जाता है।
👉 पत्थर के टुकड़ों, बांस के टुकड़ों एवं पत्तियों का प्रयोग करके रॉबिन नालियां बनाई जाती है।
👉 फल वाले पौधों में सर्वाधिक उपयुक्त सिंचाई ड्रिप सिंचाई विधि होती है।
👉 राजस्थान के कोटा जिले में जल द्वारा सर्वाधिक भू क्षरण होता है।
👉 राजस्थान में सर्वाधिक भूक्षरण वायु द्वारा होता है।
👉 शीर्ष जड़ फुटान के समय गेहूं की फसल में सिंचाई करना चाहिए।
👉 म्लानि बिन्दु पर पौधों में मृदा से बिलकुल पानी नहीं मिलता है।
👉 मृदा की क्षेत्र क्षमता पर पौधों को 100 प्रतिशत जल उपलब्ध होता है।
👉 मृदा का पृष्ठीय जल निकास रेण्डम नालियों विधि से होता है।
👉 मृदा से पौधों को पानी 1/3-15 atm के दबाव में मिलता है।
👉 पौधे मुरझाने की वह अवस्था जो पुनः सिंचाई करने पर ठीक हो जाती है उसे अस्थायी म्लानि प्रतिशत कहलाती है।
👉 इन्टरनेशनल इरिगेशन मैनेजमेंट इन्स्टीट्यूट श्रीलंका में स्थित है।
👉 मृदा में उपलब्ध जल की ऊपरी सीमा क्षेत्र क्षमता कहलाती है।
👉 साईको मीटर यंत्र के द्वारा सापेक्ष आर्द्रता को मापा जाता है।
👉 पार्सल फ्लूम यंत्र के द्वारा सिंचाई जल बहाव को मापा जाता है।
👉 टेन्सियोमीटर यंत्र द्वारा मृदा की नमी ज्ञात की जाती है।
👉 भूमि में अधिक सिंचाई करने पर अम्लता बढ़ जाती है।
👉 गेहूं की फसल में प्रथम सिंचाई 21 दिन पर की जाती है।
👉 उत्तरी राजस्थान में गर्मियों में प्रतिदिन वाष्पीकरण की दर 12-14 मिमी. होती है।
👉 राजस्थान में शुष्क खेती 65 प्रतिशत भाग पर की जाती है।
👉 भारत में शुष्क (असिंचित) क्षेत्रफल 60 प्रतिशत है।
👉 बलुई मृदा में सिंचाई की सर्वाधिक आवश्यकता होती है।
👉 नहरी क्षेत्रों में जल निकास के लिए सर्वोत्तम कट आउट नालियां मानी गयी है।
👉 पहाडी क्षेत्रों में झरनों से सिंचाई की जाती है।
👉 पौधों की उपापचय क्रिया में कुल फसल की जल मांग 1 प्रतिशत से कम होती है।
👉 मृदा में जल संग्रति करने की क्षमता एवं पानी की उपलब्धता भौतिक गुणों पर निर्भर होती है।
👉 उर्वरक देने पर फसल का वाष्पोत्सर्जन अनुपात कम हो जाता है।
👉 प्रक्षेत्र विधि फसल की जल मांग ज्ञात करने की विशुद्ध एवं वैज्ञानिक विधि मानी गयी है।
👉 फसल की प्रकृति जल मांग को सर्वाधिक प्रभावित करती है।
👉 कम अन्तराल पर सिंचाई उथली जड़ों वाली फसलों में करनी पड़ती है।
👉 एक आदर्श सिंचाई में सिंचाई कब एवं कितनी की जाये। बातों का ध्यान रखा जाता है।
👉 भारत में पंजाब का (75 प्रतिशत) सिंचित क्षेत्रफल है।
👉 भारत के सिंचित क्षेत्रफल का सबसे अधिक क्षेत्रफल उत्तर प्रदेश राज्य में है।
👉 भारत की विभिन्न मृदाओं में उपलब्ध जल की मात्रा (सूखी मिट्टी के जल का प्रतिशत) निम्न है-
1. रेत (Sand)- 3%
2. रेतीली दुमट(Sandy loam)- 7%
3. दुमट (Loam)- 9%
4. सिल्ट दुमट (Silt loam)- 9%
5. मृतिका दुमट (Clay loam)- 9%
6. मृतिका (Clay) - 16%
👉 सामान्यतः से कम सिंचाई के पानी में कुल घुलनशील लवण की मात्रा 1000 PPM होनी चाहिए।
👉 पानी में बोरेट, क्लोराइड, सोडियम, बाइ कार्बोनेट लवणों को हानिकारक माना जाता है।
👉 2000 ppm लवणों की मात्रा पानी में होने पर सिंचाई के लिए अनुपयुक्त माना गया है।
👉 सिंचाई के पानी में यदि सोडियम व बोरॉन की मात्रा ज्यादा हो तो
1. रेतीली भूमि में सिंचाई की जा सकती है।
2. भारी चिकनी मिट्टी में सिंचाई बिलकुल नहीं की जा सकती है। अंगूर के लिए हानिप्रद है।
👉 यदि सिंचाई पानी में 1.1 टन प्रति एकड फुट लवण है तो मध्यम से भारी भूमि के लिए उपयुक्त है।
👉 लवणों की मात्रा सिंचाई पानी में 8.4 टन प्रति एकड फुट है तो जिस भूमि में| जिप्सम की मात्रा ज्यादा हो (रिजका व कपास के लिए उपयुक्त) माना गया है।
👉 सिंचाई पानी में सोडियम का प्रतिशत अधिक हो तो रेतीली जमीन की पारगम्यता कम कर देता है।
👉 सिंचाई के खारे पानी में जिप्सम व गंधक का तेजाब मिलना ठीक रहता है।
👉 कार्बनिक खाद प्रचुर मात्रा में खेत में देने से घुलनशील साल्ट का रिसना बढ़ जाता है।
👉 क्षेत्र क्षमता-सिंचाई के 38-48 घंटे बाद जो जल मात्रा पृथ्वी की गुरूत्वाकर्षण के विरूद्ध रोक ली जाती है वह क्षेत्र क्षमता कहलाती है।
👉 1/3 atm वायु मण्डलीय दाब क्षेत्र क्षमता पर मृदा नमी तनाव होता है।
👉 क्षेत्र क्षमता पर मृदा में नमी 100 प्रतिशत होता है।
👉 म्लानि बिन्दु या म्लानि प्रतिशत (Wilting Point / wilting percentage) - पौधों में मुरझाहट की उस अवस्था को जो सिंचाई करने पर समाप्त न हो, भूमि में नमी की इस अवस्था को स्थायी म्लानि बिन्दु कहते है।
👉 म्लानि बिन्दु पर मृदा नमी तनाव 15 atm वायुमण्डलीय दाब पर होता है।
👉 म्लानि बिन्दु पर मृदा में नमी 0 (शून्य) प्रतिशत होता है।
👉 प्राप्य जल या उपलबध जल (Available water) - म्लानि बिन्दु तथा क्षेत्र क्षमता परिसर (Range) को प्राप्य जल या उपलब्ध जल कहते हैं।
👉 50% प्राप्त जल का उपयोग होने पर सिंचाई करनी चाहिए।
👉 मृदा में जल का वह प्रतिशत जो गुरूत्व के विपरीत 1000 गुने सेण्ट्रीफ्यूगल बल लगाने के पश्चात भी मृदा में बना रहे मृदा आर्द्रता तुल्यांक (Soil moisture equivalent) कहलाता है।
👉 मृदा कोलम से पानी के संचालन होने को अन्तरा स्त्रावण (Percolation) कहते हैं।
👉 भूमि की ऊपर पतली तह में होकर जल के नीचे की ओर गति क्रिया को अन्तः स्पन्दन (Infiltration) कहते हैं।
👉 भूमि में स्वतंत्र जल के शनैःशनैः बगल की ओर बढ़ने की क्रिया को अपसरण (Seepage) कहते है।
👉 मृदा जल की हानि सबसे ज्यादा अपधावन द्वारा (Surface runoff) 35% होती हैं।
👉 फसल की जल मांग - एक किलो शुष्क पदार्थ उत्पन्न करने के लिए जितना पानी पौधों में तने तथा पत्तियों द्वारा उत्स्वेति (transpire) किया जाता है। उसे उस फसल की जल मांग कहते हैं।
👉 पौधों की क्रान्तिक अवस्थाओं के आधार पर पौधों में सिंचाई का समय ज्ञात करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण विधि माना गया है।
👉 स्थायी नालियां - कच्ची व पक्की दोनों प्रकार की नालियां स्थायी जल समस्या वाले क्षेत्रे में बनायी जाती है।
👉 रेण्डम नालियां - बिना व्यवस्था और क्रम के बनाई जाने वाली नलियां
👉 समान्तर नालियां - इस विधि में नालियां एक दूसरे के समान्तर बनाई जाती है।
👉 वैडिंग नालियां - पृष्ठ हल के ढाल के अनुसार ही नालियों में एंकल देते हुए बनाई जाती है।
👉 क्रास स्लैप नालियां - ये नालियां ढाल के विपरीत दिशा में बनाई जाती है।
👉 म्लानि बिन्दु पर मृदा नमी तनाव 15 atm वायुमण्डलीय दाब पर होता है।
👉 म्लानि बिन्दु पर मृदा में नमी 0 (शून्य) प्रतिशत होता है।
👉 प्राप्य जल या उपलबध जल (Available water) - म्लानि बिन्दु तथा क्षेत्र क्षमता परिसर (Range) को प्राप्य जल या उपलब्ध जल कहते हैं।
👉 50% प्राप्त जल का उपयोग होने पर सिंचाई करनी चाहिए।
👉 मृदा में जल का वह प्रतिशत जो गुरूत्व के विपरीत 1000 गुने सेण्ट्रीफ्यूगल बल लगाने के पश्चात भी मृदा में बना रहे मृदा आर्द्रता तुल्यांक (Soil moisture equivalent) कहलाता है।
👉 मृदा कोलम से पानी के संचालन होने को अन्तरा स्त्रावण (Percolation) कहते हैं।
👉 भूमि की ऊपर पतली तह में होकर जल के नीचे की ओर गति क्रिया को अन्तः स्पन्दन (Infiltration) कहते हैं।
👉 भूमि में स्वतंत्र जल के शनैःशनैः बगल की ओर बढ़ने की क्रिया को अपसरण (Seepage) कहते है।
👉 मृदा जल की हानि सबसे ज्यादा अपधावन द्वारा (Surface runoff) 35% होती हैं।
👉 फसल की जल मांग - एक किलो शुष्क पदार्थ उत्पन्न करने के लिए जितना पानी पौधों में तने तथा पत्तियों द्वारा उत्स्वेति (transpire) किया जाता है। उसे उस फसल की जल मांग कहते हैं।
👉 पौधों की क्रान्तिक अवस्थाओं के आधार पर पौधों में सिंचाई का समय ज्ञात करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण विधि माना गया है।
जल निकास:-
(A) पृष्ठीय जल निकास (Surface drainage)-
👉 वह विधि जिसमें खुली नालियां बनाकर भरा हुआ पानी बाहर निकाल दिया जाता है।
👉 कट आऊट (नालिया) - नहरी क्षेत्रों में अपनायी जाने वाली नालियां (3 फुट चौड़ी, 3 फुट गहरी) होती है।👉 स्थायी नालियां - कच्ची व पक्की दोनों प्रकार की नालियां स्थायी जल समस्या वाले क्षेत्रे में बनायी जाती है।
👉 रेण्डम नालियां - बिना व्यवस्था और क्रम के बनाई जाने वाली नलियां
👉 समान्तर नालियां - इस विधि में नालियां एक दूसरे के समान्तर बनाई जाती है।
👉 वैडिंग नालियां - पृष्ठ हल के ढाल के अनुसार ही नालियों में एंकल देते हुए बनाई जाती है।
👉 क्रास स्लैप नालियां - ये नालियां ढाल के विपरीत दिशा में बनाई जाती है।
(B) भूमिगत जल निकास –
👉महंगी विधि ज्यादातर विदेशों में अपनायी जाती है। जिसमें जल निकास की व्यवस्था भूमि की निचली सतह पर की जाती है।
👉 भूमिगत जल निकास (Underground drainage) - निम्नप्रकार की नालियों द्वारा किया जाता है।
1. टाइल्स नालियां- चिकनी मिट्टी की टाइल्स बनाकर पका लेते है या कंकरीट की टाइल्स बनाकर भूमिगत नालियां बना ली जाती है। 7 से 12 सेमी व्यास व 30-40 सेमी लम्बी होती है।
2. छिद्र युक्त पाइप नालियां - 10 सेमी व्यास छिद्र युक्त लोहे, सीमेन्ट अथवा प्लास्टिक के पाइपों की नलियां होती है।
3. पत्थर एवं ईंटों की नालियां - भूमिगत नालियां पत्थरों अथवा ईटों से बनाई जाती है।
4. रविल नालियां - पत्थर और बांस के टुकड़ों से पत्तियों का प्रयोग कर नालियां बनाई जाती है।
5. मोल नालियां - चिकनी मिट्टी वाले क्षेत्रों में विशेष प्रकार के मोल हल से बनाई जाती है (यूरोप, इंग्लैण्ड, न्यूजीलैण्ड) में ज्यादा होती है।
👉 भूमिगत जल निकास की नालियां निम्न प्रकार से बनाई जाती हैं-
1. समान्तर प्रणाली- समान्तर दूरी पर समान आकार की नालियां और समान भूमि की किस्म में बनाई जाती है।
2.हेरिंग बोन प्रणाली- मुख्य नाली बीच में तथा अन्य नालियों से अधिक गहरी। सहायक नालियां दोनों तरफ लम्बवत् बनाई जाती है।
3. डबलमैन प्रणाली- हेरिंगबोन प्रणाली का रूपान्तर। नालियां ढाल के दोनों तरफ। सहायक नालियां दोनों नालियों के बाहर लम्बवत् बनाई जाती है।
4. रेण्डम प्रणाली-प्राकृतिक प्रणाली जिसमें नालियां ढाल के अनुसार बनाई जाती है।
5. गिरिडिरोन प्रणाली - जिन क्षेत्रों में ढाल एक तरफ होता है।
👉 भूमिगत जल निकास (Underground drainage) - निम्नप्रकार की नालियों द्वारा किया जाता है।
1. टाइल्स नालियां- चिकनी मिट्टी की टाइल्स बनाकर पका लेते है या कंकरीट की टाइल्स बनाकर भूमिगत नालियां बना ली जाती है। 7 से 12 सेमी व्यास व 30-40 सेमी लम्बी होती है।
2. छिद्र युक्त पाइप नालियां - 10 सेमी व्यास छिद्र युक्त लोहे, सीमेन्ट अथवा प्लास्टिक के पाइपों की नलियां होती है।
3. पत्थर एवं ईंटों की नालियां - भूमिगत नालियां पत्थरों अथवा ईटों से बनाई जाती है।
4. रविल नालियां - पत्थर और बांस के टुकड़ों से पत्तियों का प्रयोग कर नालियां बनाई जाती है।
5. मोल नालियां - चिकनी मिट्टी वाले क्षेत्रों में विशेष प्रकार के मोल हल से बनाई जाती है (यूरोप, इंग्लैण्ड, न्यूजीलैण्ड) में ज्यादा होती है।
👉 भूमिगत जल निकास की नालियां निम्न प्रकार से बनाई जाती हैं-
1. समान्तर प्रणाली- समान्तर दूरी पर समान आकार की नालियां और समान भूमि की किस्म में बनाई जाती है।
2.हेरिंग बोन प्रणाली- मुख्य नाली बीच में तथा अन्य नालियों से अधिक गहरी। सहायक नालियां दोनों तरफ लम्बवत् बनाई जाती है।
3. डबलमैन प्रणाली- हेरिंगबोन प्रणाली का रूपान्तर। नालियां ढाल के दोनों तरफ। सहायक नालियां दोनों नालियों के बाहर लम्बवत् बनाई जाती है।
4. रेण्डम प्रणाली-प्राकृतिक प्रणाली जिसमें नालियां ढाल के अनुसार बनाई जाती है।
5. गिरिडिरोन प्रणाली - जिन क्षेत्रों में ढाल एक तरफ होता है।
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Agronomy