Dry Farming and Tillage | शुष्क खेती एवं भूपरिष्करण

Dry Farming and Land Refining | शुष्क खेती एवं भू परिष्करण


शस्य विज्ञान के इस टॉपिक के अंतर्गत हम शुष्क खेती एवं भूपरिष्करण (Dry Farming and Tillage) के बारे में विस्तृत जानकारी के साथ ही शुष्क खेती एवं भूपरिष्करण के बारे में सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त करेंगे।


शुष्क खेती (Dry Farming)


वर्षा के आधार पर ड्रायलेण्ड कृषि को तीन भागों में बांटा गया है -
 
1. शुष्क खेती (Dry farming)- सबसे पहले शुष्क खेती की परिभाषा डा. जॉन ए. विंडसोइ ने वर्ष 1863 में दी थी।
➤ ऐसे क्षेत्र जहां की वार्षिक वर्षा 750 मिली मी. से कम होती है वहां शुष्क खेती अपनाई जाती है। यह खेती मुख्यतया शुष्क क्षेत्रों में की जाती हैं एवं इसका मुख्य उद्देश्य नमी संरक्षण है।
अथवा
➤ जहां पर वार्षिक वर्षा 20 सेमी या कम (अनियमित वर्षा वाले क्षेत्रों में 30 सेमी तक हो) है वहां पर बिना सिंचाई के उपयोगी फसलों को लाभकारी ढंग से उगाना शुष्क खेती कहलाता है।

शुष्क भूमी खेती की क्या विशेषताएं है-
I. वार्षिक वर्षा - 800 मिमि. से कम।
II. खेती की अवधि दिनों में - 200 से कम।
III. फसल पद्धति-एकल फसल या अन्तरा शस्य।
IV. समस्याएँ- वायु तथा जल अपरदन।
V. फसल उत्पादन का क्षैत्र-शुष्क तथा अर्द्ध शुष्क क्षेत्र।

2. शुष्क भूमि खेती (Dryland farming) - ऐसे क्षेत्र जहां वार्षिक औसत वर्षा 750 से 1150 मिमी. होती हो वहां यह खेती की जाती है और यह खेती मुख्य रूप से अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में की जाती है तथा इसका मुख्य उद्देश्य नमी व भूमि संरक्षण है।

3. रेन फेड फार्मिंग- ऐसे क्षेत्र जहां वार्षिक औसत वर्षा 1150 मिमि. से अधिक होती हो वहां यह खेती की जाती है। यह खेती मुख्यतया अद्वआर्द्र व आर्द्र क्षेत्रों में की जाती है एवं इसका मुख्य उददेश्य जल निकास है।


शुष्क खेती में नमी का संरक्षण -
1. गहरी जुताई करके
2. पलवार (Mulch) का उपयोग करके
3. वर्षा जल भंडारित (Water Shed) का प्रयोग करना।
4. खरपतवार नियंत्रण
5. वायुरोधी पट्टियों (windbreak/shelterbelt) का प्रयोग
6. वाष्पोत्सर्जन की मात्रा कम करके।

वाष्पोत्सर्जन अवरोधको का प्रयोग (Use of Antitranspirants) - यह वह पदार्थ होते हैं जो पौधो में उत्सर्जन की मात्रा को कम करके पौधे में नमी संरक्षण का काम करते हैं।
यह मुख्यतः चार प्रकार के होते हैं -
1. रन्ध्र बन्द करने वाले (Stomata dosing type) - यह पदार्थ पौधों की पत्तियों के रन्ध्रो को बन्द करके जल की हानि को कम करते हैं। जैसे - फिनायल मरक्यूरिक अम्ल (PMA), एट्राजिन (खरपतवार नाशी), ABA.CO, आदि।
2. परावर्तित प्रकार के (Reflecting type) -यह पदार्थ सूर्य से आने वाली किरणों को परावर्तित करके पत्तियों का तापमान कम करते हैं। जिससे पौधे में वाष्पोत्सर्जन क्रिया द्वारा जल हानि कम होती है। जैसे- Kaolin @5% पदार्थ का छिडकाव।
3. पत्ति पर आवरण बनाना (Film forming)- यह पदार्थ पत्तियों की सतह पर एक पतला आवरण बनाते हैं जिससे वाष्पोत्सर्जन क्रिया कम हो पाती है। जैसे - मोबीलिफ, हैक्जाडेकेनोल, सीलिकोन, ऑयल व मोम युक्त पदार्थ।
4. वृद्वि अवरोधक (Growth Retardants)- यह पदार्थ जड की अपेक्षा तने की वृद्वि कम करते हैं जिससे पौधों को कम जल की आवश्यकता होती हैं। जैसे - साइकोसिल


शुष्क खेती में फसल प्रबन्ध (Crop management) -
1. मिश्रित खेती उगाना - यह शुष्क खेती के लिए फसल बीमा है।
2. शुष्क खेती में बीजदर सामान्यतया 10 से 15 प्रतिशत अधिक रखते हैं तथा पौधे की संख्या 10 से 15 प्रतिशत कम रखते हैं।
3. बुवाई पूर्व - पश्चिम दिशा में करना चाहिए।

4. शुष्क खेती के लिये फसलों की उपयक्त किस्में -
मक्का - संकुल अगेती-76, डी-765
ज्वार - एस.पी.वी.-96, सी.एस.एच-6, सी.एस.एच.-14, एस.पी.वी.-17
बाजरा - डब्ल्यू सीसी-75, एमएच-179, आर.एच.बी.-90
मूंगफली - ए.के.12-24, जी.जी.-2 जे.एल.24
तिल - आर.टी.-46, आर.टी.-127, आर.टी.-25, टी.सी.-25
सोयाबीन - जे.एस.-335, एन.आर.सी.-37
कपास - गंगानगर अगेती, आर.एस.टी.-9, आर.एस.-875, आर.जी.-8, वागण, कल्याण
अरण्डी - अरूणा, गोच-1, गोच-4, डी.सी.एच-32, जी.सी.एच.-4, ज्योति
ग्वार - आर.जी.सी.-936, आर.जी.-197, दुर्गापुरा सफेद, दुर्गाजय
मूंग- आर.एम.जी.-62, के. 851, पूसा बैसाखी, एस.एम.एल.-668
मोठ - जडिया, ज्वाला, आर.एम.ओ.-40, आई.पी.एम.सी.ओ.-880, आई.पी. सी.एम.ओ.-912
उर्द - टी.-9, कृष्णा, बरखा
चंवला - आर.सी.-19, आर.एस.-9, सी-152, एफ.एस.-68
अरहर - प्रभात, टी-21
तारामीरा -टी-27, आई.टी.एस.ए.
तोरिया - भवानी, पी.टी.-303, टी.-9
सरसों - वरूणा (टी-59), दुर्गामणी, वैभव, आर.एच.-30, पूसाबोल्ड, अरावली,
पूसा जय किसान (बायो-902)
कुसुम - एन.-62-8,, भीमा, एस.144, ई.वी.7, ज.एस., एफ.एस-5, डी.एस.एच.129
अलसी - आर.एल.102, मीरा
चना - आर.एस.जी-2, दाहोद यलो, प्रताप चना-1, सी.-235, बी.जे.-256
सूरजमुखी - मोडर्न
जौ - आर.डी. 31, आर.डी.-2552
गेहूं - डी.-134, मुक्ता (काटिया), के-65, लोकवान-1,

अन्य महत्वपूर्ण बिन्दू -
➤ भारत में 67 प्रतिशत क्षेत्रफल (142 मिलियन हैक्टेयर) पर वर्षा आधारित खेती होती है।
➤ राजस्थान में 62 प्रतिशत क्षेत्र पर शुष्क खेती होती है।
➤ शुष्क खेती वाले क्षेत्रों की भूमि में प्रायः N2,P2,O5 & Zn तत्वों की कमी पायी जाती है।
➤ भारत में शुष्क खेती में 40 से 42 प्रतिशत खाद्यान्न व 75 प्रतिशत से दलहन व तिलहन 80 प्रतिशत उत्पादन होता है।
➤ शुष्क भूमि खेती में उर्वरकों की मात्रा साधारण खेती से आधी रखते है।
➤ राजस्थान में शुष्क भूमी खेती के लिये उपयुक्त ग्वार की फसल होती है।
➤ दलहनी फसलों में सर्वाधिक सूखा सहन करने वाली फसल मोठ है।
➤ शुष्क क्षेत्रों में खादों का प्रयोग जड क्षेत्र में करना चाहिये ताकि मृदा नमी का अधिक लाभ उठाया जा सकें।
➤ शुष्क खेती में नमी संग्रहण के लिये जल संरक्षण विधियां अपनाना चाहिये।
➤ शुष्क खेती वाले क्षेत्रों में हमेशा नगण्य (जीरो) भूपरिष्करण करना चाहिये।
➤ राजस्थान के सम्पूर्ण खेती योग्य क्षेत्र 60-70 प्रतिशत वर्षाधीन है।
➤ ढालू भूमि में कन्टूर विधि से खेती करना चाहिये।
➤ शुष्क क्षेत्रों में दीमक का प्रकोप अधिक होता है। शुष्क खेती के लिए कदूवर्गीय सब्जियां उपयुक्त रहती है।
वाटर हार्वेस्टिंग - जब बरसात में अधिक वर्षा होती है तो अतिरिक्त जल जो भूमि में बहने लगता है। उसे एकत्रित करना तथा एकत्रित जल को वाष्पीकरण एवं निःस्पदंन की हानियों से बचाकर फसलोत्पादन के उपयोग में लेना वाटर हार्वेस्टिंग कहलाता है।

राजस्थान को वर्षा के आधार पर कितने मुख्य कृषि जलवायुवीय क्षैत्रो में बांटा गया है-
1. शुष्क क्षेत्र - 100-300 मिमि वर्षा - 1-a,1-b, 1-c
2. शुष्क व अर्द्ध शुष्क अंतःकालीन - 300-500 मिमी. II-a, II-b
3. अर्द्ध आर्द्र- 500-750 मिमी. IV-a, IV-b
4 आर्द्र क्षत्र- 750 मिमी. से ज्यादा- V
➤ शुष्क भूमी खेती क्षेत्रों में मिलवा खेती या उपयुक्त फसल चक्र अपनाना चाहिये।
➤ शुष्क भूमि खेती क्षेत्रों में खरीफ फसलों की बुआई ढाल के विपरीत दिशा व कतारो में करना चाहिये।
➤ शुष्क क्षेत्रों में अमोनिया रूप में नाइट्रोजन का प्रयोग नहीं करना चाहिये।

फसल चक्र :-
➤ परिभाषा - किसी निश्चित भूमि में एक निश्चित अवधि में फसलों को निश्चित क्रम में बोना फसल चक्र कहलाता है।
➤ फसल चक्र के सिद्धांत
1. उथली जड़ वाली फसल के बाद गहरी जड़ वाली फसल उगानी चाहिये।
2. अधिक खाद चाहने वाली फसल के बाद कम खाद चाहने वाली फसल उगानी चाहिये।
3. फलीदार फसलों के बाद बिना फलीदार फसले बोनी चाहिये।
4. अधिक जल चाहने वाली फसलों के बाद कम जल चाहने वाली फसले बोनी चाहिये।
5. अधिक निराई-गुडाई चाहने वाली फसलों के बाद कम निराई-गुडाई चाहने वाली फसलें बोनी चाहिये।
6. कृषि साधनों का क्षमतापूर्ण उपयोग होना चाहिये।
➤ फसल चक्र के लाभ- भूमि की उर्वरा शक्ति में एवं भौतिक अवस्था में सुधार हो कर फसलों की पैदावार बढ़ती है तथा किसान को अधिक लाभ होता है।
➤ एक फसल चक्र एक से चार वर्षों तक हो सकता है।
एक वर्षीय फसल चक्र का उदाहरण-
1. बाजरा-जीरा,
2 तिल-गेहूं
3. मोठ-गेहूं
4.बाजरा-गेहूं/मैथी/सरसों
5. अरहर-गेहूं
6. ग्वार-गेहूं आदि।

द्विवर्षीय फसल चक्र के उदाहरण-
1. ग्वार-गेहूं-बाजरा-चना,
2. मक्का -गेहूं-उर्द-सरसों
3. कपास-गेहूं-ग्वार-गेहूं/सरसों आदि।

त्रिवर्षीय फसल चक्र के उदाहरण-
1.मक्का-गन्ना-पेडी (धान)-गेहूं
2. कपास-मेथी-गन्ना-पेडी
➤ राजस्थान में शुष्क खेती वाले क्षेत्रों के लिये उपयुक्त फसल चक्र बाजरा-चना, ज्वार-चना, मक्का-सरसों, ज्वार-सरसों आदि।
➤ राजस्थान में सिंचित खेती वाले क्षेत्रों के लिये उपयुक्त फसल चक्र मूंगफली-गेहूं, धान-गेहूं/जौ, मक्का-गेहूं/जौ
➤ एक खेत में एक ही समय में एक से अधिक फसल उगाना मिश्रित फसलों (mixed cropping) की खेती कहलाती है।
मिश्रित फसलें (Mixed crops) - इस समुदाय के मिश्रिण की फसलों की बुआई एक साथ बीज को मिलाकर पंक्तियों में अथवा छिटकवा की जाती है जैसे - गेहूं+चना+जौ, अरहर+ज्वार
सहचर फसलें (Companion crops) - इस श्रेणी के बीज आपस में नहीं मिलाये जाते है। बल्कि अलग पंक्तियों में बाये जाते है जैसे - सरसों की दो पंक्तियों के बीच पांच पंक्तियां गेहं की।
रक्षक फसले (Guard crops) - इसमें मुख्य फसल बीच में बोई जाती है। उदाहरणतः- गन्ने के खेत के चारों ओर पटसन बोना।
सहायक फसले - इस श्रेणी के मिश्रण में मुख्य फसल की कम उपज की सहायता देने के लिये रक्षक फसलें बोई जाती है। जैसे बरसीम के साथ जापानी राई को उगाना। यहां पर जापानी राई सहायक फसल है जो बरसीम की उपज को बढ़ा देती है।

मिश्रित खेती नौ प्रकार की होती है-
1. एक ही खेत में एक ही समय में अलग-अलग कतारों में दो या दो से अधिक फसलों को उगाना अन्तरा शस्य कहलाता है।
2. दो या दो से अधिक फसलों के बीजों को मिलाकर एक ही खेत में एक ही समय उगाना मिश्रित शस्य कहलाता है।
3. एक वर्ष में केवल एक ही फसल उगाना एकल शस्य कहलाता है।
4. एक ही खेत में एक ही वर्ष में लगातार दो फसलें उगाना द्विशस्य कहलाता है।
5. एक ही खेत में एक ही वर्ष में लगातार तीन या इससे अधिक उगाना बहुशस्य कहलाता है।
6. बिना खेत खाली छोडे तुरन्त एक के बाद एक फसल त्वरित गति से फसल उगाना क्रमागत कहलाता है।
7. फसल की कटाई के कुछ सप्ताह पूर्व ही दूसरी फसल बो देना आवतरण शस्य कहलाता है।
8. एक ही खेत में एक ही समय में अलग-अलग ऊँचाई पर कई फसलों को उगाना बहुमंजली शस्य कहलाता है।
9. जब दो फसलों का उत्पादन एक ही साथ बोने पर अलग-अलग बोने की तुलना में अधिक हो तो उसे परस्पर शस्य कहते है।


भूपरिष्करण (Tillage):-



➤ फसल उगाने हेतु मृदा में उचित स्थिति बनाने के लिये बुआई पूर्व से लेकर कटाई पश्चात् तक की सभी यांत्रिक क्रियाओं को भूपरिष्करण (Tillage) कहते है।
➤ भूपरिष्करण (Tillage) दो प्रकार का होता है।
➤ बुआई से पूर्व की गई सभी यांत्रिक क्रियाओं को प्राथमिक भूपरिष्करण (Primary Tillage) कहते है। जैसे- जुताई करना (डिसप्लाव,देशी हल, मोल्ड गोल्ड प्लाव, हैरो)
➤ बुआई व बुआई पश्चात तक की सभी यांत्रिक क्रियाओं को द्वितीयक भूपरिष्करण (Secondary Tillage) कहते है। जैसे-कल्टीवेटर, डिबलर, सिड्रील मशीन, प्लांटर, डिस्क हैरो, लेजर लेण्डलेवलर(भूमि को समतल करता है),रिजहल (मेड बनाने में) निराई, गुडाई,
➤ भूपरिष्करण की वह क्रिया जिसमें भूमी की जीरो जुताई की उसे न्यूनतम/जीरो भूपरिष्करण (राजस्थान की रेतिली मिट्टी में) कहते है। यह भूपरिष्करण सर्वप्रथम अमेरिका में अपनाया गया।


अन्य महत्वपूर्ण बिन्दु :-
➤ काली चिकनी मिट्टी में अत्यधिक जुताई की आवश्यकता होती जिसे अत्यधिक भूपरिष्करण कहते है।
➤ पशुपालन और फसल एक साथ उगाना मिश्रित खेती कहलाती है।
➤ भारत में कुल तिलहन व दलहन का 75 प्रतिशत शुष्क खेती के अन्तर्गत पैदा होता है।
➤ राजस्थान में औसत मानसून काल 40-60 दिनों तक रहता है।
➤ ‘अधिक अन्न उपजाओं’ का नारा हरित क्रान्ति ने दिया था।
➤ बाजरा ज्वार की कटाई के लिए रिपर काम में लेते है।
➤ फाल (Share) - हल का वह भाग है जो भूमि के संम्पर्क में आकर उसे खोलता है व उलटता है।
➤ गहरी जुताई 25 से 30 सेमी., मध्यम जुताई 15 से 20 सेमी., हल्की जुताई 5 से 6 सेमी. गहरी होती है।
➤ डिस्कहल व डिस्क हैरो का डिस्क कोण 40 से 45° तथा टिल्ट कोण 15 से 25° का होता है।


मृदाक्षरण या अपरदन (Soil Erosion) :-

मृदाक्षरण/अपरदन - भौतिक रूप से मिट्टी के कणों का अपने स्थान से हटने की क्रिया मृदा पृथक्करण या परिवहन मृदा क्षरण कहलाता है।
➤ मृदा अपरदन दर 12 टन प्रति हैक्टेयर प्रति वर्ष से अधिक नहीं होना चाहिए। जबकि भारत में यह 16 टन प्रति हैक्टेयर प्रतिवर्ष है।
वैव अपरदन - जल एवं वायु के संयुक्त प्रभाव से होने वाला।
एन्थोफोजैनिक अपरदन - भूमि पर पशुओं की अधिक चराने से होता है।
वायु क्षरण - यह क्षरण शुष्क एवं अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों, व्यर्थ या बंजर भूमि जो मुख्यतः वनस्पति विहिन है। उन मृदाओं में सर्वाधिक होता है।
➤ राज्य के उत्तरी व पश्चिमी क्षेत्रों में कम वर्षा होती है वहां मई-जून में तेज आंधियां चलने से सर्वाधिक वायु क्षरण होता है।

➤ मृदा क्षरण दो प्रकार के होते है।
1. प्राकृतिक क्षरण (Natural/Geological Erosion) - वनस्पति से ढ़की हुई मृदा प्राकृतिक रूप से हवा तथा जल लगातार और धीरे-धीरे क्षरण को प्राकृतिक क्षरण कहते है। यह क्षरण मृदा निर्माण तथा मृदा विनाश की क्रियाओं में सदैव साम्य रखता है। इससे कोई विशेष हानि नहीं होती है। इस क्षरण को मनुष्य द्वारा नहीं रोका जा सकता है। इसमें मृदा अपरदन की दर अत्यधिक कम होती है।
2. त्वरित (Accelerated) क्षरण - यह वानस्पतिविहीन मृदा में होता हैं। इसमें वायु व जल द्वारा मृदा क्षरण की गति मृदा निर्माण से अधिक होती है। यह क्षरण सर्वाधिक नुकसानदायक होता है। लेकिन मनुष्य द्वारा रोका जा सकता है।
➤ मृदा क्षरण दो शक्तियों द्वारा होता है - 1. जल और 2. वायु

जल क्षरण

➤ जल द्वारा मृदा के कण कटने व बहने की क्रिया को जलीय क्षरण कहते है। यह आर्द्र क्षेत्रों में अधिक होता है। जल क्षरण के निम्न प्रकार है:-
1. बौछार (Splash) - इसमें वर्षा की बूंदे मिट्टी के कणों को छिन्न भिन्न कर देती है और वहां पर छोटा सा घर बना लेती है। यह मृदा क्षरण की प्रारंभिक अवस्था है, यह क्षरण वर्षा की बूंदों के आकार एवं गहनता से प्रभावित होता है।
2. परत (Sheet) क्षरण - इसमें वर्षा जल के साथ मिट्टी की पतली परत बह जाती है। यह मृदा क्षरण की प्रारंभिक अवस्था हैं, यह क्षरण वर्षा की बूंदों के आकार एवं गहनता से प्रभावित होता हैं। इस क्षरण में बहता हुआ जल मृदा की सतह में उपजाऊ मिट्टी को बहा कर ले जाता है। कृषि की दृष्टि से सर्वाधिक हानिकारक मृदा क्षरण है।
3. रिले (Rilly) क्षरण- इसमें खेत में बहुत छोटी-छोटी नालियां बन जाती है। यह नालियां जुताई के समय समाप्त हो जाती है।
4. अवनालिका (Gully) क्षरण - यह रिले क्षरण की बढ़ती अवस्था हैं। इसमें रिले क्षरण द्वारा बनाई गई नालियां इतनी चौड़ी या गहरी हो जाती हैं कि उपजाऊ मिट्टी के कटने के बाद अद्योमृदा भी कटने लग जाती हैं। ये नालियां साधारण जुताई द्वारा समाप्त नहीं होती है। यह जल द्वारा क्षरण का विकराल रूप हैं
➤ इसे अद्योमृदा क्षरण भी कहते है यह क्षरण कोटा के आसपास चम्बल के क्षेत्र में अधिक होता है।


वायु क्षरण (Wind Erosion):-

➤ वायु द्वारा मृदा कणों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचने की क्रिया वायु क्षरण कहलाती हैं। यह क्षरण शुष्क क्षेत्रों में ज्यादा होता है जहां वनस्पति नहीं के बराबर पायी जाती है।
➤ वायु मृदा का परिवहन तीन प्रकार से होता है
1. उच्चछलन (Saltation) - इसमें मृदा कण अपने स्थान से उछलकर दूसरे स्थान पर जाते हैं। इसमें 0.1 से 0.5 मिमी. के मृदा कण उछलकर जाते हैं। भार की दृष्टि से 50-75 प्रतिशत मृदा क्षरण इसी क्रिया द्वारा होता है।
2. निलम्बन (Suspension) - इसमें 0.1 मिमी. से कम आकार के मृदाकण
हवा में लटके रहते है। कण हवा के द्वारा वातावरण में उडते रहते हैं। जो हजारों किलोमीटर तक स्थानान्तरित हो जाते हैं। इसके द्वारा 3-4 प्रतिशत क्षरण होता है।
3. सतह सर्पण (Surface creep) - इसमें 0.5 से 3 मिमी. से अधिक आकार के मृदा कण भूमि सतह पर रेंगकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानान्तरित होते है। इससे 5-25 प्रतिशत मृदा क्षरण होता है।

मृदा कटाव (Soil Erosion):-

➤ देश के सभी भागों में जल के द्वारा भूमि क्षरण होता हैं
➤ राजस्थान, गुजरात, हरियाणा में वायु द्वारा भू-क्षरण होता है।
➤ A = RKLSCP सूत्र से जल द्वारा भू क्षरण से उत्पन्न हानि का अनुमान लगाने के लिए उपयोग किया जाता है।
➤ भारत देश में प्रतिवर्ष भू-क्षरण द्वारा पोषक तत्वों की हानि होती है - 60 लाख टन नाइट्रोजन, 60 लाख टन फास्फोरस, 100 लाख टन पोटेशियम एव 100 लाख टन कैल्शियम।
➤ वायु द्वारा भू क्षरण से उत्पन्न हानि का सूत्र E=IRKFCWDB
➤ दो भागों में मृदा क्षरण के उपयों को मोटे तौर पर बांटा जाता है।
➤ एग्रोनोमिक एवं इंजीयरिंग उपाय भूमि एवं जल की क्षमता के अनुसार फसल प्रबन्ध होता है।
➤ संख्यात्मक भूमि एवं जल संरक्षण के दृष्टिकोण से कृषि क्षेत्रों के लिए भू क्षरण रोकने में काम लायी जाने वाली विधियां कहलाती है।
➤ 8 प्रतिशत ढालान तक सवोच्च जुताई अपनायी जाती है।
➤ 50 प्रतिशत समोच्च जुताई से भू क्षरण प्रतिशत कम किया जा सकता है।

भू-क्षरण को रोकने के लिए यांत्रिक उपाय होते है-
1. समोच बांध का निर्माण
2. प्रक्रमबक्ष बांध
3. सबसायलिंग
4. B.B.F. प्रणाली
5. सीढ़ीनुमा खेती
6 .जिगं खेती

भूक्षरण को रोकने की शस्य विधियां -
1. समोच खेती
2. भू परिष्करण
3.मल्चिंग
4. फसल चक्र
5. पटियों में फसल बोना
क्षरण - मृदा क्षरण कारकों की क्षमता होती है।
क्षारणयता (Erodibility) - मिट्टी के क्षरण के लिए संवेदनशीलता।
➤ वायु क्षरण को प्रभावित करने वाले कारक जलवायु, वनस्पति व स्थलाकृति है।


  • शस्य विज्ञान के महत्वपूर्ण प्रश्नो को शस्य विज्ञान मॉक टेस्ट के द्वारा तैयार करे 
  • उद्यान विज्ञान के महत्वपूर्ण प्रश्नो को उद्यान विज्ञान मॉक टेस्ट के द्वारा तैयार करे 
  • पशुपालन विज्ञान के महत्वपूर्ण प्रश्नो को पशुपालन विज्ञान मॉक टेस्ट के द्वारा तैयार करे
  • कृषि जलवायु , मौसम एवं मानसून टॉपिक का बिंदुवार विस्तार से अध्यायन करें।
  • Post a Comment

    Previous Post Next Post